पनचक्कियां सदियों से उत्तराखंड के पर्वतीय समाज का अटूट हिस्सा रही हैं। स्थानीय तौर पर इन्हें घट, घराट आदि अनेक नामों से जाना जाता है। कुछ दशक पहले तक ये घराट अनाजों को पीसकर आटा बनाने का प्रमुख साधन रहे हैं। परन्तु कालांतर में अनेक कारणों से यह परम्परागत तकनीक, समाज और सरकार की अनदेखी का शिकार होकर विलुप्त होती जा रही है। ऐसा ही कुछ पौड़ी गढ़वाल स्थित चौथान पट्टी में देखने को मिल रहा है। यह लेख चौथान क्षेत्र में घराट संस्कृति के क्रमिक परित्याग की वजहों के पड़ताल की दिशा में एक प्रयास है।
घराट संस्कृति के बारे में
घराट पानी की गतिज ऊर्जा का उपयोग करके आटा बनाने की एक परिष्कृत प्रणाली है। इन्हें अरसे से हिमालयी इलाकों में छोटी नदियों, जलधाराओं के किनारे विकसित किया गया है जिसके निर्माण और संचालन में वहां के समाज की आपसी सहभागिता और श्रमदान परम्परा निहित है।

घराट निर्माण और संचालन का जलधाराओं और स्थानीय पर्यावरण पर नगण्य प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह अनोखी तकनीक बिना बिजली और जीवाश्म ईंधन के चलती है। अधिकांश स्थानीय लोग घराट परिचालन प्रक्रिया से भली-भांति परिचित होते हैं। रखरखाव की जिम्मेदारी मालिक की होती है।
इसकी सुविधा वस्तु-विनिमय प्रथा पर आधारित है। उपयोगकर्ता को पैसे के स्थान पर पीसे हुए आटे का एक छोटा हिस्सा जिसे भगवाड़ कहते हैं को स्वैच्छिक रूप से देना पड़ता है। संक्षेप में यह प्राचीन परंपरा सामुदायिक सहयोग का उल्लेखनीय उदाहरण है।
घराट निर्माण, चालन विधि
आम तौर पर पहाड़ी शैली का एक छोटा कमरा, एक छोटी नहर (कूल, नैअ), लकड़ी का पाइप (पन्याल, Shaft), लकड़ी की एक टर्बाइन (भन्योर), लकड़ी की पंखड़ी, एक जोड़ी पिसाई के गोल पत्थर (पाट) और अनाज के लिए एक शंकुनूमा डब्बा (रैयोड़), अनाज निकासी, (खाबड़), टर्बाइन व अलग्युं कक्ष (नीन उबर) किसी भी घराट के लिए बुनियादी सामान है। इसमें टर्बाइन की गति से लेकर आटे की गुणवत्ता (मोटा या बारीक), खाबड़ से गिरने वाले अनाज की मात्रा को नियंत्रित करने के लिए स्थानीय प्रावधान भी शामिल हैं।

कमरे से लेकर लगभग सभी कलपुर्जे स्थानीय तौर पर उपलब्ध लकड़ी, माटी, पत्थरों से तैयार किए जाते हैं। घराट के मूल ढांचे की दीवारों, छत को पत्थरों से बनाया जाता है। इसे खड़ा करने में मट्टी के गारे का इस्तेमाल होता है। पन्याल लम्बे, मजबूत पेड़ के तने से बना होता है। यहां चीड़ का पेड़ इसके लिए सबसे उपयुक्त है। जहां टर्बाइन, पंखड़ी के लिए सान्धल या काफल की लकड़ी प्रयोग होती है वहीं खाबड़ को निंगाल एक बांस की प्रजाति से बनाया जाता है। केवल पिसाई के पत्थरों को बाहर से लाया जाता है।
सबसे पहले, मुख्य जलस्रोत में छोटे-बड़े पत्थरों से एक अस्थायी बंध बनाकर पर्याप्त जल प्रवाह नहर में डाला जाता है। नहर की लंबाई 50 से 100 मीटर तक हो सकती है। इसके अंतिम छोर पर अतिरिक्त पानी छोड़ने के लिए एक निकासी दी जाती है। घराट में अवांछित रुकावट या अस्थायी मरम्मत के समय इस निकासी का प्रयोग किया जाता है।

टर्बाइन में घास, फूस या कचरे के व्यवधान को रोकने के लिए नहर के मुहाने पर लकड़ी की पतली डंडियों का की एक जाली लगायी जाती है। फिर ऊंचाई बिंदु (Head Point) से पन्याल में पानी छोड़ा जाता है। हेड पॉइंट की ऊंचाई, पन्याल की लम्बाई स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर है और 2 से 5 मीटर तक हो सकती है। टर्बाइन को कमरे के नीचे बने एक संकरे कक्ष में रखा जाता है।
टर्बाइन की धुरी घराट के नीचे बने संकरे कक्ष में रखे एक लकड़ी के फट्टे पर टिकी होती है। इसकी धुरी वहां पानी की बहाव दिशा में रखे लकड़ी के फट्टे पर टिकी होती है। पन्याल और टर्बाइन के पंखों को सिधाई में रखा जाता है ताकि पानी का वेग पंखों से टकराकर टर्बाइन को घुमा सके।

टर्बाइन का ऊपरी हिस्सा पिसाई के ऊपरी पत्थर से जुड़ा होता हैं जबकि निचला पत्थर कमरे के फर्श पर स्थिर अवस्था में रखा जाता है। रैयोड़ हल्की सी झुकी स्थिति में पतली रस्सियों के सहारे छत से टंगा रहता है। साथ में खाबड़ से अनाज के दानों का निकास ठीक ऊपरी पत्थर के छेद में हो यह सुनिश्चित किया जा जाता है। अनाज निकास और पिसाई पत्थर के बीच की दुरी मुश्किल से चार या पांच सेंटीमीटर होती है।
खाबड़ की तली में लकड़ी का एक छोटा डंडा लम्बाई में बांधा जाता है जिसके दोनों छोरों पर लकड़ी की दो चड़कुल लगाई जाती हैं। खाबड़ और पिसाई पत्थर के बीच में यही चड़कुल एकमात्र सम्पर्क है। जब पिसाई का पत्थर घूमता है तो ये चड़कुल लगातार उससे टकराते हैं और खाबड़ में एक कम्पन पैदा करते हैं जिससे अनाज के दाने धीरे धीरे निकासी से छिटकने लगते हैं।
गिरने वाले दानों की मात्रा को बढ़ाने या घटाने के लिए इन्हीं चड़कुल को पिसाई पत्थर की गति दिशा के अनुरूप या विपरीत लगाया जाता है। जरूरत के हिसाब से केवल एक चड़कुल या एक ही सिरे पर दोनों चड़कुलों को भी लगा सकते हैं।

पिसाई पत्थर के विपरीत दीवार से सटाकर अलग्युं (Liver) लगाया जाता है। इसका आधार टरबाइन कक्ष की सतह पर रखे फट्टे के अंतिम सिरे से जुड़ा होता है। इसका इस्तेमाल पिसाई पत्थरों के बीच दुरी कम या ज्यादा करके आटे को मोटा या पतला किया जाता है। साथ में टर्बाइन की गति बढ़ाने या घटाने के लिए नहर पर बनी निकासी से पानी की मात्रा कम या ज्यादा करके किया जाता है।
टर्बाइन से टकराकर पानी वापस उसी जलधारा या नदी में मिल जाता है। चौथान क्षेत्र में मुख्यतः यही घराट विधि प्रचलित है। उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों में मूल सिद्धांत और बनाने का तरीका, सामग्री, सहायक उपकरण और नामकरण थोड़ा भिन्न हो सकता है।
चौथान में लुप्त होती घराट संस्कृति
चौथान पट्टी में लगभग 72 गाँव शामिल हैं। यह पट्टी पौड़ी जिले के थैलीसैंण ब्लॉक में स्थित हैं। इसकी पूर्वी सीमा अल्मोड़ा तथा चमोली जिलों से भी लगती है। पट्टी का एक बड़ा भूभाग दूधातोली वनों से घिरा है। यहाँ से दर्जन से अधिक छोटी-बड़ी बारहमासी जलधाराएं निकलती हैं जो बिन्नू नदी को बनाती हैं। भौगोलिक दृष्टि से यह क्षेत्र रामगंगा के उद्गम जलागम का हिस्सा है। जल संपदा में सम्पन्न होने की वजह से यहाँ पूर्वकाल में लगभग सभी छोटे-बड़े गदेरों पर बड़ी संख्या में घराटों को स्थापित किया गया है।
पिछले साल दिसंबर में ग्रामीणों के साथ चर्चा और दो दिनों के जमीनी मुआयना के आधार पर पता चला कि कुछ दशक पहले तक यहाँ करीब 80 से अधिक घराट उपयोग में थे, लेकिन अब मुश्किल से 32 ही चालू स्थिति में हैं। जिसकी वजह स्थानीय निवासी पहले डीज़ल अब बिजली चक्कियों की बढ़ती संख्या, कुशल कारीगरों की अनुपस्थिति और बढ़ती रखरखाव लागत को बताते हैं।
साथ में अनियमित वर्षा, गदेरों के प्रवाह में गिरावट के चलते घराटों पर आश्रिता कम हो रही है। इसके अलावा, विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत जलस्रोतों के बढ़ते के दोहन के घराटों के संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
घराटों से अनाज पिसाई में अधिक समय और शारारिक श्रम लगता है जिससे युवा पीढ़ी में इनको बचाने की रुचि कम है। इन सब और और कुछ अन्य सामाजिक कारणों से चौथान में घराट संस्कृति धीरे धीरे खत्म हो रही है। अगर यही हालत रहे तो आने वाले कुछ वर्षों में यहाँ के अधिकांश बचे हुए घराट भी बंद हो सकते हैं।
ग्रामीणों से चर्चा
चौथान के डांग गांव में स्थित दो घराटों को दिसंबर 2020 के तीसरे सप्ताह के अंत में बंद पाया गया। जिसका कारण एक घराट के मालिक नंदन सिंह ने मानसून और बाद के महीनों में बारिश की कमी को बताया। “अगर अच्छी बारिश होती है, तो हमारे गदेरे में घराट को साल भर चलाने के लिए पर्याप्त पानी होता है अन्यथा ये मौसमी हो रहे हैं और पहले ऐसा नहीं था”, उम्रदराज नंदन सिंह ने बताया।

नंदन सिंह के अनुसार पारंपरिक घराटों में पिसाई के पत्थर भारी होते हैं जिन्हें चलाने के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। उन्होंने यह भी कहा कि पिसाई पत्थर दूर स्थान से खरीदे जाते हैं जिसे लाने में कठिनाई होती है और पांच हजार रुपये से अधिक का वित्तीय बोझ पड़ता है। इन कारणों से, वे अपने पुश्तैनी काम को जारी रखने में ख़ास इच्छुक नहीं हैं। उसी गदेरे में ऊपर जैंती गांव के चार में से तीन घराटों को बंद पाया गया।

इसी तरह क्षेत्र के सुंदर गांव में अब तीन में से एक ही घराट काम कर रहा है और एकमात्र चालू घराट की छत भी जर्जर हालत में है। स्थानीय निवासी मोहन सिंह ने कहा, “हमारे जलस्रोतों से सिंचाई और पेयजल आपूर्ति हेतु दोहन बढ़ता जा रहा है, जिससे गदेरे में पानी कम हो रहा है।” उन्होंने आगे कहा कि एक घराट को नियमित रखरखाव की आवश्यकता होती है और बाढ़ या अन्य आपदाओं में ज्यादा नुकसान होने पर मालिक उन्हें छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं।
“इस घराट का पन्याल सड़ गया है। नए पन्याल के लिए कई ग्रामीणों को चीड़ के तने को काटने और दूर जंगल से यहाँ तक लाने में लम्बा समय और श्रम लगा। उबड़-खाबड़, पथरीले, संकरे रास्ते से भारी भरकम तने को लाना जोखिम भरा काम हैं”, जंदरिया गाँव के पदम सिंह नेगी ने एक अन्य बंद घराट के निर्माणाधीन पन्याल को दिखाते हुए बताया।

”अब पन्याल में नाली काटने में कारीगरों को कई दिन लगेंगे। यह काम हाथ से बहुत ध्यानपूर्वक करना पड़ता है। थोड़ी गलत चोटों से पन्याल में दरारें आ सकती हैं और पूरी मेहनत बेकार हो सकती है”, नेगी ने आगे कहा।
उपरोक्त वजहों से इतर, घराट मालिकों के परिजनों के बीच अनसुलझे संपत्ति विवाद, वर्तमान पीढ़ी में अपेक्षित रुचि, कौशल की कमी, उनका निश्चित और स्थायी आय के साधनों में जुटना अन्य अहम सामाजिक कारक हैं, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र में अनेकों घराट खंडहर में तब्दील हो चुके हैं।

बारहमासी बिन्नू नदी की लगभग तीस किलोमीटर लम्बाई में छब्बीस में से बंद हो चुके सोलह घराट इस बात का समर्थन करते हैं। “अब हमारे पैतृक घराट में छह सांझीदार हैं। परिवार के अधिकांश युवा सरकारी या निजी क्षेत्रों में कार्यरत हैं। गांव में रह रहे परिवार के बाकी युवक अब बंद पड़े घराट को चालू करने के प्रति उदासीन हैं”, स्यूंसाल गांव जहां तीन घराट सालों से खंडहर पड़े हैं के पान सिंह भंडारी ने बताया।
उनके अनुसार अब गांव में दो बिजली चक्कियां हैं जिनमें से एक घराट में सांझीदार परिजन की है। उनके परिवार ने हाल ही में व्यक्तिगत चक्की ले ली है। “अब हालत यह है कि यदि घराट को किसी तरह चालू भी किया जाये तो गांववाले इसका प्रयोग नहीं करेंगे क्योंकि यह गाँव एक किलोमीटर नीचे गदेरे में हैं जहाँ आने-जाने में बहुत मेहनत लगेगी जिसे कोई नहीं करना चाहेगा जबकि उनके घरों से मुश्किल से पचास मीटर की दूरी में बिजली चक्की लगी है। ऐसे में घराट चालू करना औचित्यहीन है।”

“जब गाँव के घराट बंद हो गए, तो हमने नया बनाने की कोशिश की, लेकिन सफतला नहीं मिली। फिर हम पीठ पर भारी थैले लादकर दूर दूसरे घराटों पर जाते थे, कभी-कभी अपनी बारी से पहले वहां घंटों इंतजार करना पड़ता था और फिर उसी बोझ के साथ वापस पहाड़ चढ़ना पड़ता था। इस प्रकार पूरा दिन शारीरिक परिश्रम, थकावट में बीत जाता था “, गाँव की एक बुजुर्ग महिला भागुली देवी ने बताया।

बीते दिनों को याद करते हुए वे आगे बताती हैं “पहले कुछ स्थानों पर डीजल चक्की लगी, अब धीरे-धीरे बिजली चक्कियां लग रही हैं। हमारे समय में गांव-गांव हाथ की चक्की जांधर और सरसों तेल पिराई के लिए कुल्हड़ होते थे पर बिजली, मशीनों के आने से यह सब पुराने ज़माने की बात हो गई।”
हाल के दिनों में कुछ स्थानीय लोगों ने घराट सुधार और उससे बिजली उत्पादन के असफल प्रयास किए गए हैं। “अब हर गांव में बिजली है, गांव स्तर पर चक्की लगी हैं। सरकार की रोजगार सृजन योजना के तहत बिजली चक्कियों पर अस्सी प्रतिशत छूट मिल रही है। इसलिए अब घराटों का चलन बहुत कम हो गया है”, रिक्साल निवासी नारायणदत्त रतूड़ी बताते हैं। वे एक परम्परागत घराट और एक उन्नत घराट के मालिक हैं जिसमें लोहे की टर्बाइन, पंखुड़ी लगी है।

बरसों पहले नारायण दत्त ने घराट तकनीक से बिजली पैदा करने का प्रयोग किया लेकिन असफल रहे। “हम घराट संस्कृति के बीच पले-बढ़े हैं। एक समय था जब इन्हें समृद्धि के प्रतीक के रूप में देखा जाता था और जिला परिषद द्वारा मालिकों पर सालाना कर लगाया जाता था। इस परंपरा को जीवित रखने के लिए हमारे पास अभी भी संसाधन हैं। लेकिन बदलते परिवेश में समाज को इसके प्रति जागरूक करना बहुत कठिन काम है”, रतूड़ी ने आगे बताया।
जिला परिषद सदस्य अमर सिंह नेगी भी यही चिंता व्यक्त करते हैं। “हर गांव में पहले से ही तीन या अधिक बिजली चक्कियां लगी हैं। अब लोग निजी चक्की भी खरीद रहे हैं। पूरा समाज प्राचीन परंपरा से दूर जा रहा है और हम इसे रोक नहीं सकते है”, उन्होंने कहा। उनके अनुसार, बाढ़ और अन्य कारणों से घराटों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए मालिकों को स्थितिनुसार मुआवजा दिया जाता है, लेकिन इस विलुप्त होती प्रथा को बचाने के लिए सरकार की कोई पहल या योजना नहीं है। नारायण दत्त और अमर सिंह दोनों ही स्थानीय घराट समिति से जुड़े हैं जो लगभग निष्क्रिय अवस्था में हैं।

“घराट बहाल के लिए खेती बाड़ी को भी बचाना होगा। अब मौसम बदलता जा रहा है। खेती के समय कभी बहुत ज्यादा, कभी ना के बराबर बारिश हो रही है जिससे अनाज पैदावार में कमी हो रही है। पहले ही जंगली जानवरों से फसलों को नुकसान हो रहा है। अब पलायन, राशन प्रणाली के चलते बड़े पैमाने पर खेती भूमि बंजर होती जा रही है। अधिकतर निवासी राशन पर आश्रित हैं। अब वो भी कम पड़ रहा है और लोग सीधे आटे, चावल के कट्टे खरीद रहे हैं। जब अनाज ही नहीं होगा तो पीसेंगे कहाँ? ”, 55 वर्षीय गबर सिंह बिष्ट, पूर्वप्रधान, पीपलकोट बताते हैं।
उनके गांव से लगभग एक किलोमीटर नीचे ही बिन्नू नदी में पहले लगभग बारह घराट चालू थे। “मैंने बचपन में इन घराटों का उपयोग किया है। ये साल भर चलते थे जहाँ कई अन्य गाँवो से लोग आते थे। लेकिन अब केवल एक उन्नत पनचक्की और एक घराट चल रहा है।”, बिष्ट ने कहा। उनके पास भी अब घर में एक बिजली चक्की लगी है, इसलिए वे सालों से घराट नहीं गए हैं।

हालांकि चौथान पट्टी में आज भी जैंती, मासों, कांडई, पोखरी, डडोली, डुमडिकोट, शेरामांडे, किमोज, समैया समेत दर्जनों गांवों में हज़ारों ग्रामीण घराट सुविधा से लाभ उठा रहे हैं। “गांव में बिजली चक्की है पर हम हमेशा घराट के आटे को पसंद करते हैं क्योंकि इसका स्वाद बेहतर होता है। बिजली की चक्की तेजी से चलती हैं और अनाज के पोषक तत्वों को जला देती हैं, घराट में ऐसा नहीं होता है”, डुमडिकोट के सरपंच भीम सिंह ने बताया। लेकिन सब मानते हैं कि गदेरों में पानी की कमी, घराट कारीगरों का अभाव और बिजली चक्कियों का प्रसार वास्तव में चिंता का कारण हैं जिससे आने वाले समय में घराट प्रथा समाप्त हो सकती है।
हालाँकि स्थानीय निवासी घराट संस्कृति और इससे जुड़े आर्थिक लाभ, पर्यावरण हित की महत्ता को स्वीकार करते हैं, फिर भी उनकी ओर से पूर्वजों के इस ज्ञान और धरोहर को बचाये रखने के लिए संगठित, प्रभावी प्रयास नदारद हैं। जबकि आज आधुनिक उपकरण, सामान उपलब्ध हैं जो काफी हद तक घराटों की उत्पादन क्षमता और संचालन, निर्माण में लगने वाले श्रम को दूर कर सकते हैं।

यदि स्थानीय समाज और सरकार मिलकर घराटों के सुधार, आधुनिकीकरण का प्रयास करे तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह अनोखी परम्परा ना केवल बिजली की चक्कियों से प्रतिस्पर्धा का सामना कर सकती है, बल्कि विपरीत दौर में भी स्थायी तौर पर अपना वजूद बनाए रख सकती है। इसके अलावा, ये घराट गांव स्तर पर बिजली आपूर्ति का संभावित माध्यम भी बन सकते हैं।
उम्मीद है कि चौथान और राज्य के अन्य पर्वतीय जगहों पर घराट संस्कृति के विलुप्त होने से पहले आश्रित समुदाय, सरकार इन्हें पुनर्जीवित करने की पहल करेंगे ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए कहीं घराटों के अवशेष केवल किसी संग्रहालय में देखने को ना मिले।
भीम सिंह रावत (bhim.sandrp@gamil.com)
The English version of the report can also be seen here. Gharat: Traditional wisdom seeking community care, govt support