Ken River

केन नदी को जीवित रखते, झीरा, झीना, डबरा, डबरी, दहार

(Feature Image:-  पवई में सिमरा बहादुर के पास केन नदी के घुमाव पर बने दहार का एक फोटो। (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

यह रिपोर्ट भीम सिंह रावत, साउथ एशिया नेटवर्क आन डैमस्, रिवर्स एंड पीपल (सैनड्रप) दिल्ली और सिद्धार्थ अग्रवाल, वेदितम इंडिया फाउंडेशन, कलकता द्वारा केन नदी की तैंतीस दिवसीय पदयात्रा के अनुभव पर आधारित है। इस पदयात्रा को जून एवं अक्टूबर 2017 और अप्रैल 2018 के दौरान तीन चरणों में पूरा किया गया था। रिपोर्ट का उद्देश्य यात्रा से मिले अनुभवों और समझ को साँझा करना है। पहले भी हम नदी यात्रा के विभिन पक्षों के बारे में लिख चुके हैं। जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं –एक, दो, तीन,। आगे भी हम केन नदी के अनसुने पहलुओं को उजागर करने का प्रयास जारी रखेंगे।

जून 2017, पहला चरण

केन भारत की सबसे साफ़ नदियों में शुमार है। वर्ष 2017-2018 में एक पदयात्रा के दौरान इस नदी के पर्यावरणीय तंत्र और इसके किनारों पर बसे समाज को करीब से देखने समझने का मौका मिला। अमूमन नदी शब्द का विचार मात्र, मन में एक निश्चित स्रोत से निरंतर बहती हुई जलधारा की तस्वीर बनाता है। कुछ ऐसी ही अपेक्षा के साथ नदी के साथ चलना शुरु किया।

यह यात्रा 10 जून 2017 में केन-यमुना नदियों के संगम चिल्ला जगह से आरम्भ हुई जो उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है। संगम पर केन नदी का पूरा फाट (बहाव क्षेत्र) पानी से लबालब भरा था। बिना नाव के नदी पार करना संभव नहीं था। इसके बनस्पत यमुना नदी एक किनारे पर अपेक्षाकृत कम पानी के साथ बहती दिखी और दूसरी तरफ यमुना नदी से भरा बड़ा खादर क्षेत्र खाली पड़ा था।

केन यमुना संगम पर चलती नावें. (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

ऐसा प्रतीत हुआ केन नदी में यमुना से भी ज्यादा पानी है। पर आगे चलकर पता लगा की संगम पर यमुना नदी केन की धार को स्थिल कर देती है जिसके कारण केन में ठहराव आता है, और बाढ़ के समय में तो यमुना प्रवाह केन को कई किलोमीटर पीछे तक धकेल देता है। केन नदी के शुरूआती लगभग 10 किलोमीटर में हो रहे बाहिने तटों के किनारे कटान के निशानों और इसके रोकथाम के लिए किये गए बाढ़ नियंत्रण कार्य एवं निर्मित पुश्ते इस बात की पुष्टि करते लगे।

लगा शायद केन नदी का ऐसा ही स्वरूप उदगम तक देखने को मिले। बमुश्किल 6-7 किलोमीटर चले थे कि पूरा परिदृश्य बदल गया। दिघवट व नारी गांव के बीच में अविश्वनीय तौर पर केन नदी का जलस्तर पूरी तरह उथला था। लोग आराम से पैदल, साइकिल, मोटरसाइकिल एवं ट्रेक्टर लेकर नदी पार कर रहे थे।

पैलानी से पहले केन को साइकिल पार करता एक ग्रामीण. (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

नदी तल चट्टानी था। हल्के प्रवाह के साथ केन नदी बह रही थी, जिसे देखते हुए चिल्ला के पास बना जलकुंड एक हैरान का विषय था। शाम नजदीक थी। नदी के मिजाज में हुए बदलाव के कारणों पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए, हमने तेजी से पैलानी की तरफ बढ़ना शुरू किया। ताकि अंधेरे होने से पहले, रात्रि पड़ाव का ठिकाना मिल सके।

पैलानी, नदी के बाएं तट पर ठीक नदी से सटकर बसा क़स्बा है जिसे नदी तीनों तरफ से घेरे हुए है। रात में तो संभव नहीं था पर सुबह होते ही जैसे ही केन पर नजर पड़ी नदी फिर से पानी से भरी दिखी। केवल उत्तर दिशा में नदी का थल थोड़ा छिछला दिखा।

उसके बाद यह सिलसिला अमलोर, अलोना, खपटिहा, लुकतरा, कनवारा तक जारी रहा। 5-6 किलोमीटर तक पानी से अच्छे खासे भरे व एक बड़ी नदी का आभास कराते जलकुंड और उसके बाद कुछ 100-150 मीटर तक चट्टानी नदी तल। जहाँ से नदी को आसानी से पैदल पार किया जा सके। बीच-बीच में खासकर नदी के घुमाव वाले स्थानों पर रेत, जिसे स्थानीय लोग मोरंग कहते है, के लम्बे-चौड़े पाट। तो कहीं-कहीं नदी तट नुकीले कंकड़-पत्थरों से भरा हुआ।

पठारी के पास तो नदी का बहाव क्षेत्र इतना सिकुड़ा मिला की पत्थरों पर चार-पांच छलांग लगा कर नदी के आर-पार टाप सकें। चट्टानों से टकराकर बहती केन नदी का पानी इतना साफ़ कि प्रकृति प्रेमी नदी का पानी पीने, उसमें नहाने से खुद को रोक ना पाएं, और चटकन के पास तो जलकुंड इतना गहरा बताया कि कभी यहाँ डॉल्फिन तक पायी जाती थी।

बाँदा में रात्रि विश्राम के बाद, एक दिन पूरा बाँदा क्षेत्र में नदी को घूमने में लगाया। यहाँ पहली बार तस्वीर थोड़ी साफ़ हुई। कनवारा के पास, अरसे से दाएं तट को काटती केन नदी का तल 20-30 फुट तक नीचे चला गया है। नदी बहाव का लगभग 2 किलोमीटर लम्बा हिस्सा छोटे छोटे अलग-अलग रंगो के खूबसूरत पत्थरों से भरा हुआ था। बताया गया कि यहाँ सफ़ेद शीशे के जैसे सेजर पत्थर भी मिलते हैं जिससे आभूषण आदि बनते हैं और कुछ लोगों के लिए यह रोजगार का जरिया भी है।

सबसे विचित्र चीज थी झीरा (झिरना)। कनवारा लिफ्ट इरीगेशन पंप से थोड़ा नीचे, नदी किनारे माटी के टीलों से निकलता जलस्रोत। झीरा शब्द शायद झरने से बना है। गर्मी की दोपहर में यहाँ कुछ स्थानीय लोग पानी भरने आ रहे थे तो कुछ नहाने। पानी भी स्वाद में मीठा था। आस पास एक आध और ऐसे ही झीऱे थे।

तब याद आया के एक दिन चटकन में भी नदी खादर में बारी (सब्जी) की खेती करने वाले किसानों ने भी एक ऐसा ही झीरा दिखाया था जिसमें बहुत कम पर साफ़ पानी आ रहा था। कुछ किसान नदी किनारे रेत में गड्ढा खोदकर जमा पानी को पीने के लिए इस्तेमाल करते थे- जिसे वे चुईं कह रहे थे।

अक्टूबर 2017, दूसरा चरण

बाँदा पूल के नीचे नदी का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह से बड़ी-ऊँची चट्टानों से अटा मिला। जिससे बहुत कम मात्रा में पानी नीचे बह रहा था। नदी केवल बरसात के समय ही इन चट्टानों को लाँघ पाती है। इसके बाद फिर वही, कहीं उथली नदी तो कहीं लम्बे गहरे जल कुंड देखने को मिले। कहीं नदी का पूरा पाट पथरीला, तो कहीं मोरंग से भरा हुआ। 

दरअसल इन जलकुण्डों के अंदर और आस-पास भरपूर जलीय जीवन दिखने को मिला। इन्हीं के सहारे कछुए, मछलियाँ पनप रहीं थी। नदी में नावें चल रही थी। तटों पर बारी (सब्जियों) की खेती हो रही थी। जहाँ तट ऊँचे थे, डीज़ल मोटरों के द्वारा पानी खींच कर सिंचाई की जा रही थी। नदी तट हरभरे थे और नदी का पानी वन्य एवं पालतू मवेशियों के पीने, नहाने के काम आ रहा था। एकदम जीवित नदी की अनुभूति करा रहे थे ये जलकुंड।

बाँदा के गंछा गांव के पास केन नदी में बने डबरे से सिंचाई के लिए नाव में मोटर लगाकर पानी निकालने का फोटो (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

नदी पदयात्रा का लगभग आधा सफर तय हो गया था। जैसे जैसे नदी के साथ ऊपर चलते गए कमोबेश नदी का ऐसा ही स्वरूप देखने को मिला। केवल चौड़ाई और बहते पानी की मात्रा उत्तरोत्तर कम होती जा रही थी। अनेक स्थानों पर तट दलदलीय थे। दो नाव (स्थानीय भाषा में दो नदियों का संगम) पर केन नदी की सुंदरता, उपयोगिता चरम पर होती थी।

रात के पड़ावों और लोगों से बातचीत में एक सवाल जो बार-बार हम पूछते थे कि क्या उन्होंने केन का उद्गम देखा है और क्या आगे नदी में पानी है या सूखी है। अधिकतर लोग बताते क्यां (केन नहीं) सात पहाड़ों को पार करके आई है ऐसा उन्होंने सुना है। नदी में पानी को लेकर उनका कहना होता कि आगे डबरा मिलेगा फिर पानी नहीं होगा। बरसात में खूब बहती है क्यां।

समझने में बहुत देर लगी कि लोग इन जलकुण्डों को ही डबरा कह रहे थे। इसी तरह स्थानीय लोग छोटे जल कुंडों को डबरी बता रहे थे। आधे-एक किलोमीटर के जलकुंड डबरी और 5-6 किलोमीटर लम्बे जलकुंड डबरा। 

वास्तव में केन नदी की भौगोलिक दशा ही ऐसी है कि कई स्थानों पर नदी विंध्य की पहाड़ी, पठारी इलाके से गुजरती है। अधिकांश जगहों पर नदी तल चट्टानी है। जहाँ प्राकृतिक तौर पर गहराई है वहां ये जलकुंड बने हैं। चूँकि आसपास का भू-जल कम-ज्यादा मात्रा में आता रहता है तो इनमें हमेशा ताजा पानी भरा रहता है और सतह से थोड़ा-बहुत बहाव नीचे की तरफ जाता है। कुछ जलापूर्ति सहायक नदियां भी करती हैं। जिनके कारण आज केन नदी का अस्तित्व बना हुआ है।

छत्तरपुर, मध्य प्रदेश के महोबा गांव के पास केन नदी का पठारी हिस्सा।  (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

पन्ना में केन किनारे रनेह फॉल की घाटी (Canyons) और पांडव फॉल व गुफाओं को देखने के बाद तो यह अंतर् स्पष्ट समझ आता है। चूँकि बाघ अभ्यारण्य पन्ना एवं घड़ियाल अभ्यारण्य, छतरपुर में नदी किनारे चलना वर्जित है, इन अभ्यारण्यों में हम नदी के कुछ हिस्सों को एक पर्यटक के तौर पर देख सके। बाघ अभयारण्य पन्ना के अंदर केन को जैव विविधता से भरपूर बनाये रखने में डबरा, डबरी की संरचनाओं के साथ-साथ श्यामरी सहायक नदी द्वारा निरंतर जलापूर्ति भी है। 

अप्रैल 2018, तीसरा चरण

पन्ना से ऊपर अमानगंज में पण्डवन पूल के नीचे तो केन नदी अप्रैल 2018 में बिल्कुल सूखी मिली। पर कुछ एक आध किलोमीटर आगे चलने पर फिर से 3-4 किलोमीटर लम्बा डबरा जो सोनार नदी के दोनाव तक फैला था, देखने को मिला। आगे फिर से पथरीला, जलविहीन केन नदी बहाव क्षेत्र। 

अमानगंज के सप्तहि गांव में रात बिताने के बाद सुबह देखा, लोग नदी किनारे से पानी ला रहे हैं जबकि नदी पूरी तरह सूखी थी। जब नदी किनारे गए तो पाया कि एक जगह पर पानी की छोटी धारा निकल रही थी जिसे लोगों ने झीना (Spring) बताया। झीने का पानी मीठा और ठंडा था। गांव वाले गर्मी में हैंडपंप की बजाय झीने का ही पानी पीना पसंद करते थे। नदी तल में जमा झीरे के पानी को पशु पीते दिखे।

पन्ना में अमानगंज से आगे सप्तहि गांव में केन नदी किनारे स्थित झीना जबकि नदी तल पूरी तरह सूखा है। (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

आगे की यात्रा में भी कई स्थानों पर ऐसे ही झीने देखने को मिले, जिसपर लोग पीने, नहाने के कामों के लिए आश्रित थे। जहाँ डबरा-डबरी थे वहां तो सुबह से ही नहाने-तैरने का तातां लग जाता था।

तिघरा पूल से कुछ आधा किलोमीटर पहले, पुरैना गांव के पास एक और अनोखी चीज देखने को मिली। जहाँ पूल के ऊपर-नीचे नदी पूरी तरह सूखी थी वहीं नदी के बीचोंबीच एक अच्छा खासा तालाब बना था। नदी किनारे पेड़ों के नीचे पशुपालकों का पूरा जमघट लगा हुआ था। बातचीत में लोगों ने बताया की यहाँ जमीन से पानी निकलता है और ये जलकुंड कभी नहीं सूखता। अगर थोड़ा भी पानी कम हुआ तो कुछ घंटों में अपने आप भर जाता है।

पवई में तिघरा पुल से पहले सूखी केन नदी में झीने से बने डबरी में पशुओं को पानी पिलाते ग्रामीण। (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

ऐसा लगा नदी तल में कोई कुदरती ट्यूबवेल लगा हो जिसे वे भी झीना कह रहे थे। गांववालों का मानना था कि गेहूं की खेती होने के बाद से क्यां नदी ने पानी बहना रुक गया है क्योंकि नदी में मोटर लगाकर लगातार दो-तीन महीने पानी निकाला जाता है। तिघरा पूल के नजदीक पहुँचने पर तो भूजल को नदी तल से निकलते हुए देखकर बहुत हैरानी और ख़ुशी हुई। पन्ना के बाद पवई में जैसे-जैसे आगे चले वैसे-वैसे डबरा, डबरी, झीना, दोनाव पर नदी जीवित तो आगे पीछे पथरीली सूखी नदी क्रमागत देखने को मिली।

पवई के सिंघासर गांव से शाहनगर कस्बे के रोहनिया गांव तक लगभग 70 किलोमीटर की लम्बाई में केन नदी का एक और अद्भुत पहलु देखने को मिला। अब डबरा की जगह दहार (दौं) ने ले ली थी। अनेक स्थानों पर सूखे नदी तलों के अंतराल के बीच दस से लेकर पंद्रह, बीस किलोमीटर तक लम्बे जलकुंड बने थे। जिन्हें स्थानीय लोग दहार बता रहे थे। हालाँकि नदी की चौड़ाई केन-यमुना संगम की तुलना में एक तिहाई से भी कम प्रतीत हुई पर दहारों के कारण केन नदी का प्राकृतिक सौंदर्य और नदी के इर्द-गिर्द ग्रामीण जीवन की दिनचर्या देखते ही बनती थी। 

इस भाग में नदी किनारे चलने का रास्ता संकीर्ण और जटिल होता गया। लोग दहार की गहराई और डूबने के खतरे को लेकर खासतौर पर आगाह करते थे। पवई बाँध के नीचे घिरी और सुर्रो के ग्रामीणों ने तो नदी में मगरमच्छ का देखा जाना सामान्य घटना बताया। वास्तव में, केन नदी का यह भाग सबसे सजीव और सुन्दर लगा। यहाँ नदी छोटी पहाड़ियों और जंगलों के बीच से गुजरती है।

पवई बाँध से पहले केन नदी में बने दहार का एक दृश्य। (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum)  

उस समय पवई (तेन्दुघाट) बाँध निर्माण का कार्य अंतिम चरण पर था। बाँध के ठीक ऊपर डूब में आने वाले पिपरिया गांव के ग्रामीण पुनर्वास, मुआवजे की चिंताओं और मांगों की अनदेखी के आगे बेबस दिखे। ठीक यही स्थिति नदी किनारे के पेड़ों की थी जिन पर निशान लग चुके थे और कटाई जारी थी। आज यह योजना बन चुकी है और जहाँ बाँध के ऊपर के गांव व दहार डूब गए हैं, वहीं नीचे के ग्रामीणों और दहार का जलीय जीवन बाँध की जल निकासी पर आश्रित हो गया है।   

पवई बांध से लगभग तीन किलोमीटर ऊपर, सतधारा के पठारी भाग के बाद फिर से केन नदी ने दहार का रूप ले लिया। स्थानीय लोगों ने बताया यहाँ सात धाराएं मिलती हैं। इसलिए इस जगह को सतधारा कहते हैं।

शाहनगर कस्बे के रामगढ किले के बाद नदी के शुरुआती लगभग 50 किलोमीटर का हिस्सा देखकर यकीन करना मुश्किल था कि यह कोई नदी है। चौड़ाई निरंतर कम होती गई। पानी का कहीं-कहीं पर वजूद था। वो भी किसी स्टॉप डैम पर या गहरे स्थान पर।

सैदा से उद्गम तक लगभग 15 किलोमीटर की दूरी में तो केन पूरी तरह जलविहीन थी। स्थिति इतनी विकट थी कि लोगों को अस्थि विसर्जन, अंतिम संस्कार तक के लिए पानी उपलब्ध नहीं था। किसान पालतू पशुओं के पानी पीने, नहाने और गर्मी से बचाने के लिए, नदी के छोटे गहरे हिस्से को ट्यूबवेल चलाकर भर रहे थे। हम नदी के किनारे नहीं बल्कि बीच में चलकर जा रहे थे जैसे किसी गांव की पतली पगडंडी हो।

शाहनगर कस्बे के सैदा गांव से ऊपर केन नदी में ट्यूब वेल के पानी से भरा गड्ढ़ा।   (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum) 

आखिर में हम 18 अप्रैल 2018 को अपनी पदयात्रा के अंतिम पड़ाव और नदी का उद्गम स्थल मध्य प्रदेश के कटनी जिले के रीठी ब्लॉक में पहुँच चुके थे। यहाँ नदी के नाम पर पहाड़ी ढ़लान से गुजरता हुआ पानी का एक सूखा बहाव क्षेत्र पाया। स्थानीय लोगों ने बताया कि ममार गावं में एक खेत की टूटी मेढ़ ही क्यां (केन) नदी की जन्मस्थली है। यहाँ से थोड़ा पीछे अहीरगवां की पहाड़ी साफ़ दिखाई देती है। जो नर्मदा और क्यां के जलागम क्षेत्र को बाँटती है। उद्गमस्थल के थोडा पीछे ही चकबंदी कर एक बड़ा तालाब बनाया हुआ है। वह भी सूखी अवस्था में था।

उद्गम से करीब पचास मीटर नीचे नदी किनारे एक पुराना मंदिर भी क्यां देवी को समर्पित है जहाँ कुछ स्थानीय लोग कार्तिक पूर्णिमा के नौवें दिन नदी की जयंती मनाते हैं। जलागम क्षेत्र से आने वाली सभी जलधाराओं पर यहाँ चकबंदी अथवा स्टॉप डैम बने हुए हैं।

उद्गम से बमुश्किल 200 मीटर नीचे केन नदी पर बना स्टॉप डैम टूटी हालत में दिखा। आधा किलोमीटर नीचे उस समय रेलवे की दूसरी लाइन के निर्माणाधीन कार्यों के मलबे ने केन बहाव क्षेत्र को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। इस तरह हमारी केन पदयात्रा समापन हुई। नदी किनारे चलकर ही हम नदी और समाज के नए रूपों, तौर-तरीकों, जमीनी स्थिति के बारे में जान पाए।

अनुभव एवं समझ सार

पदयात्रा के अवलोकन से समझ आया कि क्यां (केन) ज्यादातर जगह अभी बारामास बहने वाली अवरिल नदी नहीं है। यह कहना मुश्किल है कि ऐसी स्थिति कब से है। फिर भी नदी के कुछ आरंभिक और अधिकांश मध्यम एवं निचले भागों में खूब पानी दिखता है। जिसका मुख्य श्रेय नदी की भौगोलिक स्थिति के कारण बने दहार, डबरा, डबरी जैसी प्राकृतिक संरचनाओं और झीरा, झीना आदि के रूप में नदी में मिलने वाले भूजल स्रोतों को जाता है। साथ में कुछ सहायक नदियाँ भी क्यां में जलापूर्ति करती हैं। काफी जगहों पर नदी सूखी है, जलकुण्डों के पानी में ठहराव अधिक और बहाव कम दिखा। 

पन्ना के अमानगंज में पंडवन पुल के नीचे सूखी अवस्था में केन नदी। (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum)

यमुना संगम से उद्गम तक हमने पाया कि केन में पर्याप्त बहते जल की कमी के कारण नदी पर बनी विभिन्न सिंचाई, पेयजल, जल संचयन योजनाएं बुरी तरह प्रभावित थी। जहां बरियारपुर बाँध से नीचे नदी किनारे आधा दर्जन से अधिक लिफ्ट इरीगेशन योजनाएं थी जो पानी की कमी, खनन आदि अनेक कारणों से किसानों को विशेष लाभ नहीं दे पा रही थी, वहीं तिघरा पूल से ऊपर केन नदी के उद्गम तक बने डेढ़ दर्जन से अधिक स्टॉप डैम अपने प्रयोजन में सफल नहीं थे। कुछ एक को छोड़कर अधिकांश स्टॉप डैम जलरहित या टूटी अवस्था में थे।

इस पदयात्रा से एक अहम सीख यह मिली कि जहाँ एक ओर नदी जल दोहन के लिए बनी मानव निर्मित नलकूप, स्टॉप एवं चक डैम, लिफ्ट इरीगेशन, बांध परियोजनाएं; नदी पर्यावरणीय तंत्र पर विपरीत प्रभावों के साथ अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जूझ रहीं है, वहीं नदीतंत्र के अभिन्न घटकों के तौर पर ये कुदरती बाँध (जलाशय), जलस्रोत आज भी केन को सजीव बनाए हुए हैं। परन्तु अरसे से इन प्राकृतिक धरोहरों के वजूद पर नदी पर निर्मित एवं प्रस्तावित जल दोहन योजनाओं, जंगलों के कटने, बढ़ते रेत खनन आदि मानवीय हस्तक्षेप के चलते लगातार खतरा बढ़ रहा है।

पंडवन से लगभग दो किलोमीटर ऊपर केन-सोनार नदियों के संगम पर पानी से भरे डबरे। केन की गहराई का आभास कराती नाव एवं तट पर होती बारी की खेती। (Image taken during Ken River Yatra by SANDRP & Veditum)

इसके बावजूद, वर्तमान में जमीनी हकीकत और नियमों की अवेहलना कर, नदी में अतिरिक्त ‘Surplus’ पानी के अवैज्ञानिक जानकारी के आधार पर केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है- जिसके तहत केन नदी पर दोधन (पन्ना) में बाँध बनाकर इसका पानी बेतवा नदी में ले जाना है, जबकि वर्तमान में केन नदी का जलतंत्र संकटग्रस्त है और नदी में सतत बहते पानी की निरंतर कमी हो रही है। जिसके समाधान हेतु आज नदी आधारित डबरा, डबरी, दहार, झीरा, झीना जैसी प्राकृतिक संरचनाओं, व सहायक नदियों के अध्ययन एवं संरक्षण की नितांत आवश्यकता है। केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना ना सिर्फ पन्ना बाघ अभ्यारण्य और इसकी समृद्ध जैव विविधता एवं घने जंगल के साथ-साथ नदी की प्राकृतिक संरचनाओं तथा उस पर आश्रति समाज के लिए एक बड़ा खतरा है।

Bhim Singh Rawat (bhim.sandrp@gmail.com)

Siddharth Agarwal (asid@veditum.org)

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