Rivers

नदियां हमसे कुछ कहना चाह रही हैं, बशर्ते हम गौर से सुनें

रुचिश्री, असिस्टेंट प्रोफेसर, भागलपुर विवि

साल 2006 की बात है। मैं छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी के 22.6 किलोमीटर हिस्से के निजीकरण की खबर पर रिसर्च कर रही थी। एक सवाल सहज ही मेरे मन में कौंधा कि आखिर नदियां क्या हैं? महज पानी का स्रोत या जीवित इकाई? वे राज्य की संपत्ति हैं या किसी की निजी बपौती? या कहीं वे उस पर आश्रित लोगों की साझा संपत्ति व सांस्कृतिक धरोहर तो नहीं?

इसके कई सालों बाद बिहार में चम्पा नदी के पुनरुत्थान के लिए चल रहे अभियान ने मेरा ध्यान खींचा। मैं इस अभियान से जुड़ी, चम्पा के बारे में अधिक जानने की इच्छा बलवती हुई। जब मैंने नदियों पर काम शुरू किया, तब सोचा नहीं था कि उनके पास मुझे बताने के लिए इतना कुछ था। जो मैंने जाना, उसमें से कुछ पाठकों से साझा करना चाहती हूं।

हाल के दिनों में नदियों को जोड़ने से होने वाले फायदे-नुकसान पर काफी गहमागहमी है। शहरीकरण के कारण नदियों के किनारे को कूड़ा फेंकने के काम में लाया जा रहा है। दूसरी तरफ कुछ नदियों के सौंदर्यीकरण के नाम पर उनके कंक्रीट-किनारे बनाए जा रहे हैं। आधुनिकता ने ना केवल बांधों को बढ़ावा दिया, बल्कि जल के प्रति समाज की सोच को भी प्रभावित किया।

इस प्रक्रिया को बाढ़ मुक्ति अभियान के दिनेश मिश्र ‘लैंग्वेज गैप’ का नाम देते हैं। वे कहते हैं पानी और मौसम सम्बंधी जो समझ मछुआरों और नाविकों के पास है, उसे हम आज तवज्जो दे पाने में असमर्थ हैं। ऐसे में ज्ञान का आधार केवल तर्क न होकर अनुभव भी हो, यह कोशिश हमें करनी होगी। उदाहरण के तौर पर, राजस्थान के लापोड़िया और मप्र के देवास इत्यादि क्षेत्रों में परंपरागत ज्ञान-परंपरा पर आधारित सामुदायिक जल संचयन के प्रयोग अनुकरणीय हैं।

बिहार और झारखण्ड जल के मामले में समृद्ध-समाज हैं पर साथ ही कई दिक्कतें भी हैं- चाहे वो बिहार में अक्सर आने वाली बाढ़ हों या झारखण्ड में गिरता भूजल स्तर। दोनों ही राज्य विकास के पथ पर अग्रसर होने के क्रम में जल के रखरखाव को लेकर परंपरागत ज्ञान से क्रमशः दूर होते जा रहे हैं। बाढ़ के साथ जीने वाला समाज इसे समस्या के तौर पर देखने लगा और नदियों को बांध से बलवत बांधने की प्रवृत्ति बढ़ती गई।

दूसरी तरफ बालू के अत्यधिक खनन से नदी के बहाव का मूल स्वभाव प्रभावित हुआ। बाढ़ की समस्या के साथ लगातार नीचे जा रहा भूजल स्तर चिंता का विषय है। हरित क्रांति के बाद पंजाब की कृषि में आए परिवर्तन और उसके परिणाम हमारे समक्ष हैं। सवाल है, हम पंजाब की आर्थिक तरक्की से खुश हों या कृषि में अत्यधिक रासायनिक प्रयोग से बढ़ते कैंसर और रसातल में जा रहे भूजल स्तर का भी संज्ञान लें?

जल की गुणवत्ता/उपलब्धता के सूक्ष्म और वृहत् को साथ रखकर देखना जरूरी है। हाल के समय में गंगा के तराई क्षेत्र में और खासकर पश्चिम बंगाल, बिहार और झारखण्ड में कैंसर रोगियों की बढ़ती संख्या विकराल रूप लेती जा रही है। महावीर कैंसर इंस्टिट्यूट (पटना) के निदेशक डॉ. अशोक घोष बताते हैं कि इस समस्या की जड़ तक पहुंचना जरूरी है। वे कहते हैं विगत तीन दशकों में सतही जल के प्रयोग का कम होना और भूजल पर निर्भरता का बढ़ना आर्सेनिक जनित रोगों का प्रमुख कारण है।

ऐसे में, छोटी नदियों को जलस्रोत के रूप में प्रयोग में लाना कारगर हो सकता है। पर्यावरण शिक्षा को महज विषय के रूप में पढ़ने के बजाय देश भर में हमें स्थानीय नदियों से जुड़ने तथा पर्यावरण संरक्षण को मुहिम के तौर पर लेने की जरूरत है। पर्यावरण महज विषय ना होकर हमारी सोच-समझ और व्यवहार का हिस्सा होना चाहिए।

रुचिश्री, असिस्टेंट प्रोफेसर, भागलपुर विवि (jnuruchi@gmail.com)

Note: This was published in Dainik Bhaskar on Feb 17, 2022.

One thought on “नदियां हमसे कुछ कहना चाह रही हैं, बशर्ते हम गौर से सुनें

  1. नदियां हमें सचेत कर रही हैं।
    अगर नहीं चेते तो जो होगा वह बेहद भयानक होगा।

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